कल तक उसकी छाया में


चारपाई लगा शयन करता था
शीतलता प्राप्त कर उनकी
गर्मी से बचता था
कट जाता था सारा समय
जैसे मेरा घर हो वहां
उनकी शीतल छाया में
भूल जाता सारा जहां
मुझ पर सुखी जीर्ण पत्तों की
बरखा कर
मुझे नींद दिला जाती
डाली पर अनेक खग बिठा
मधुर- मधुर गीत सुनाती
हर पल हर दम उनकी टहानियां
हवा के थपेड़ों से टकराती
उसकी नव पुष्पित- पल्लवित पत्तियों पर
अनेक भंवर और तितली मडराती
बच्चे भी डाले थे
उनके डालो में झूला
नित्य खेलते वह झूला झूला कर हल्ला
पर
आज कट गए वह पेड़
आज मिट गया है सब कुछ
पसरा है बस सन्नाटा
✍️Kartik Kusum
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