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Showing posts with the label कविता

यह कैसी है बुढ़ापा?

उमर के आखिरी पड़ाव में सब कुछ नष्ट कर जाएगा। सारे रिश्ते, नाते, प्यार समय की आग में चट कर जाएगा। कौन संजोएगा? कौन ढोएगा? यहां तो हरेक हृदय में विष भरा पड़ा है। जिन्हें करनी थी समतामूलक समाज का निर्माण, जिन्हें बनानी थी एक नई पहचान। कुछ कर गुजरने का जिगरा रखना था, निजी स्वार्थ से ऊपर उठना था। सेवा के पथ पर चलकर प्रेम का दीप जलाना था। दो टूटे परिवारों का सेतु बनकर कंठहार में स्नेह पिरोना था। पर उनकी मति मारी गई, वह तो हारी गई। अपने को मार कर बैठ गया, खुद से हार कर वह बैठ गया। उन्हें किसी दूसरे की अच्छाई भाती नहीं, उन्हें अच्छाई आती नहीं। ईर्ष्या, लोभ, की वेदना में डूबा — यह कैसी है बुढ़ापा! जिन्हें चलना था भजन-मार्ग पर, जिन्हें पढ़नी थी जीवन-दर्शन की किताबें। गेरुए वस्त्र धारण कर ललाट पर लगाना था चंदन तिलक। “ॐ नमः शिवाय” का जाप कर मोक्ष की राह पर अग्रसर होना था। पर वह जीवन के झंझावात में फँस गया, वासनाओं की भीड़ में उलझ गया। न मोह छूटा, न माया छूटी, वह सड़कों पर बहता गंगाजल बन गया। कोई उन्हें निकाले, कोई उन्हें बचाए, मानवता की नाव फिर से खे जाए। अब भी समय है — संघर्ष से ऊपर उठने का, हृदय...

"टूटल सपना, भींजल खेत"

सोनवा नियन गेहुआं,   सोनवा नियन खेत।   देखी के किसान के   भर गेल हले पेट। नरम-नरम हथिया से सहलउलकी,   प्यार से गेहुआं के बाली।   सुघ्घर गेहुआं देख के,   हम सपना लगलीं पाली। सोचलीं–   ए साल गेहुआं बेच के   छोटका के सहर पढ़ई भेजब।   स्कूल में नाम लिखइब।   ओही पइसा से   छोटका ला जूता-चप्पल किनब।   पढ़ाई करईब, बड़ आदमी बनइब। बाकी विधाता ऐसन बरखा कर देलक   कि जीते जी हम मर गइली।    सब कुछ बह गेल।   सपना चकनाचूर हो गेल।   खेत के सोनवा   पल भर में मिट्टी भेय गेल। किसान छाती पीटऽ हथ   लाडो बेटी के गोदी में बइठा के।   बोलऽ हथ—   लाडो बेटिया, तोहसे भी वादा कइने रहलीं।   पाँव में पायल पहिरइब।   देहिया ला फ्रॉक और अंगिया किनब। माफ कर देब लाडो बेटिया—   अपन तो एहे बाप हई।   जे कुछ ना कर सकल तोहार खातिर। --- लेखक – कार्तिक कुसुम यादव  भाषा – मगही   व...

कविता, तू कायर है...

तू कायर है तूने अपना परिचय दिया, बदले की भावना में बहकर, दूसरो का सहारा लिया। तुझे लगा कि तू रणनीतिकार है, नहीं रे... तू बेकार है। तू बेकार इतना कि, तुझसे तुलना पंक के कीड़े से करना व्यर्थ। तुझझे नहीं हो पाएगा, तेरे कृत का है यही अर्थ। तुझे क्या लगा? मैं इस तुच्छ चीजों से विचलित हो जाऊंगा, बदले की भावना में बहकर, मैं तुझसे लड़ूंगा। नहीं रे... जो स्वीकार कर लिया हार का, जिसके सामने डाल दिया तू खड़ग, उनके साथ ऐसे कृत्य सुशोभित नहीं। अगर अभी भी है भुजाओं में बल, और रखते हो युद्ध कौशल, तो आ... तुझे ललकार रहा हूं, आमने-सामने की लड़ाई लड़। अगर मां के स्तन का क्षीर पिया हो, तो कर युद्ध निडर। मुझे पता है रे... तेरे रगों में कायरों का खून है। भुजाएं शक्तिहीन हैं। रण की तलवारों की टकराहट सुन, तेरे हृदय का स्पंदन होता शून्य। तू रण के लायक नहीं। तू कायर है रे... तू कायर सही। ✍️ Kartik Kusum Yadav

नदी किनारे देवालय

नदी किनारे देवालय  ऊपर ओढ़े चादर किसलय। फूल-हरि पत्तियां अर्पित  सलिल पांव पखारे। टन-टन बजती घंटियां साधु संत करते आरतियां  वातावरण सुंदर सुहावन लगे मंदिर में जब घंटी बजे गीत सुनाती जल धारा कल-कल कर बहती गाती शांत, सौम्य, मनोरम दृश्य देवालय खींच लाती। ✍️ Kartik Kusum Yadav

जिनगी के असल रंग

युवा लोगन सभे,   इंस्टा पर झूमे,   गावे ला तराना,   देखअ ई कैसन जमाना।   रात-दिन मोबाइल में भुलाइल,   खेलअ-कूदअ त गइल भूल।   घर के कौना में सिमटल जिनिगी,   रंग-बिरंग सपना सभ मिटल।   माटी में खेलल भुलाईल,   जिनिगी जिए के मने भुलाइल।   कैसे समझाईं, ओहके कैसे मनाईं?   ए सुगना, ए बबुआ!   तनी घर से बाहर निकलअ,   खेलअ, कूदअ, दौड़अ धूपअ,   ई खुलल फिजा में विचरअ,   जीवन के असली रंग निहारअ।   खेतवा में सरसों के पियरी,   आपन नयन से तनि देखअ,   अमवा के डाली पर कोयली कूके,   ओकर मधुर तान सुनअ।   फुलवा पर देखअ   कैसे रंग-बिरंग तितली मडरातअ,   सुबह के ललकी किरिनिया,   घासवा पर शबनम के बूंद नया,   देखअ कैसे चमकअ त।   बांस के झुरमुट में   चहके ल चिरइया,   उजर आसमान में उजर बगुला,   देखअ कैसे उड़ रहल ह।   बगिया में दे...

प्रेम और परिवर्तन का संदेश

शक न करअ,   जिद पर न अड़अ,   ई बुरी वला ह।   सपना जे तोहार बा,   मन में जे इरादा बा,   उहो निक न ह।   मन में जे ईर्ष्या बा,   जीवन में ऊहापोह बा,   ओकर कारण तू ही ह।   ई काल चक्र ह जीवन के,   ई नित्य नवीन परिवर्तनशील ह।   तू कहा फसल बाड़नऽ   ई भौतिक वस्तु के मोह-माया में?   ई नश्वर, क्षणभंगुर ह।   एकरा जानअऽ, एकरा मानअऽ।   जिह्वा देलहन भोले बाबा,   त तनी शुभ-शुभ बोलअऽ।   बतइयां करे से पहिले तनीक,   हृदय के तराजू पर तोलअऽ।   अपन अहंकार के त्यागअ$,   प्रेम-दुलार के रंग में रंग जा।   प्रेम में ऐसे डूबअऽ,   जैसे हर जन आपन लागे।   ✍️ Kartik Kusum Yadav

छात्रों का अधिकार और आंदोलन की पुकार

शिक्षा, न्याय, रोजगार हक है हमारा।   लाख यातनाएं दो हमें,   लेकर रहेंगे अधिकार हमारा।   अरी ओ पुलिस कप्तान,   तूने जो लाठी चलवाई,   बन गया तू निर्दयी कसाई।   छात्रों की समस्या,   तुझे तनिक भी नजर न आई।   किसने आज्ञा दी तुझे   हम पर लाठी बरसाने की?   जाओ उस निकम्मी सरकार से कह दो   "छात्र आ रहे हैं, सिंहासन खाली करो!"   गुस्से का लहू रगों में दौड़ रहा है।   समर शेष है रण की।  अब आंदोलन का नाद सघन होगा,   गूंजेंगी शहर की सड़के और गलियां।   इंकलाब! इंकलाब! इंकलाब की बोलियां। अरे, बनकर निकलेगी जब सड़कों पर   अलग-अलग छात्रों की टोलियां।   ओ पुलिस! तेरी बंदूकें धरी की धरी रह जाएंगी,   कुछ न बिगाड़ पाएंगी गोलियां।   अभी भी वक्त है,   छात्रों का हृदय विशाल है।  जाओ, हमारी मांगों का संदेशा   उस कुंभकर्णी नींद में सोई सरकार तक पहुंचाओ।   कहना—   याचक नहीं हूं,...

आत्मबोध का आह्वान

तुझे लड़ना है,   मुझे प्यार बांटना है।   तुझे तोड़ना है,   मुझे जोड़ना है।   तेरी वाणी असभ्य,   मेरी सौम्य और सभ्य।   तू भौतिकता को सर्वोच्च माना,   मेरे लिए तुच्छ जहाँ सारा।   तेरे संस्कार तुझे मुबारक हो,   आओ संवाद करें,   सबकुछ यहाँ बराबर हो।   क्यों रूठे हो एक भूखंड के खातिर?   यह तो किराए का है,   आज तेरी तो कल किसी और की होगी।   अवसर मिला है क्षणिक,   मिलबांट कर उपभोग करो,   यही है इसका गणित।   इतनी बौद्धिकता भी नहीं,   तो तू उपभोग के अधिकारी नहीं।   त्याग करो, वत्स,  लोभ, मोह, मद, मत्स का।   अंगीकार करो, वत्स,   सत्य, न्याय, और सच का।   जिसने इसे स्वीकारा है,   वह फला-फूला और खुद को संवारा है।   जीवन के आखिरी पड़ाव पर सही,   कुछ करो आज और अभी यहीं।   घृणा की धधकती ज्वाला से बाहर निकलो,   अपने कोमल नयन संग मुस्...

प्रभु

प्रभु तू हर ले,   काम, क्रोध, वासना को।   प्रभु तू हर ले,   छल, कपट, लोभ तृष्णा को। दिव्य मन, चंचल हो चितवन,   ऐसी वर दे, ऐसा हो तन-मन।   सद मार्ग पर चलकर नित्य,   अर्थपूर्ण हो मेरा कृत्य। प्रीत ऐसी हो वतन से,   खुद को अर्पण कर दूं, वतन पे।   आलस्य, निर्जीवता त्याग कर,   सजीवता का अंगीकार करू। प्रभु के चरणों में,   प्रभु का जय-जयकार करू।   मांगू हर चीज उनसे,   भारत देश के कल्याण का। सत्य, अहिंसा का हो वास,   हर हृदय में हो विश्वास।   धर्म और कर्म की हो साधना,   संविधान की हो आराधना। जन-जन में जगे नई आशा,   सपनों का भारत हो अभिलाषा।   भ्रष्टाचार से दूर हो हर जन,   सुचिता हो भारत की पहचान। विज्ञान, कला और नवाचार,   शिक्षा में हो अपार विस्तार।   सद्भाव, समानता, हो स्वाभिमान,   हर नर-नारी का हो सम्मान। पर्यावरण का हो संरक्षण,   हरे-भरे हों वन और उपवन।   जल, मृदा, औ...

पंच परमेश्वर

यह कैसा पंच परमेश्वर ? जिसमें न हो सत्य का स्वर  उनकी बात सुनो  तो,  बाते करता धरा से अम्बर । नीति व नियति का ज्ञान नहीं नैतिकता, रत्ती भर नहीं  आदर्श-मर्यादा को ठुकराकर अपने वचनों को ठहराहटा सही। यह कैसे पंच परमेश्वर  जिसमे न हो सत्य का स्वर खुद की तारीफो में कसीदे पढ़ते  कितने झगड़े को सुलझाया  यू ही, मैं पलक झपकते । वो अपनी अतीत की दुनिया  से, सबको रूबरू कराता। महज सौलह वर्ष का रहा होगा न्याय वेदी का प्रतिमूर्ति कहलाता। इतने दिव्य गुणों से सुशोभित  क्यों नहीं रखते प्रियजानो से मीत ?   कभी तो अपने उर, टटोलकर देख। या पढ़ प्रेमचंद्र रचित, अलगू चौधरी और जुम्मन शेख। असली पंच परमेश्वर से साक्षात्कार होगा तेरे अधरो पर न्याय का स्वर आएगा। हे दुनिया-जहान के न्याय देवता तेरे घर में भी नहीं है एकता। आपके कौशल और चातुर्य  अपनो के न्याय में क्यों पड़ जाती हैं शिथिलता । यह सब देख मुझे, होती हैं हैरानी और कौतुहलता। संपत्ति की इतनी लोभ दुर्गति होगी, करो जरा तुम क्षोभ कैसे समाज गढ़ना चाहते हो ? सिर्फ संपत्ति ठगने की चाह रखते हो। वो दिवस आज भी याद...

आदिवासी

उस निविड़ अरण्य का वासी निश्चल ,निर्भीक रहने को आदि  हष्ट - पुष्ट भुजाएं विशाल छाती आधे -कपड़े पहने धोती खाकी  सुबह से शाम खेत में मेहनत, परिवार के लिए रोटी-दाल, पर्यावरण के प्रति प्रेम, वनदेवी का  आशीर्वाद। परिवार के साथ खुशहाल जीवन, प्रकृति के बीच अथाह प्रेम  आदिम संस्कृति का संरक्षण, वनवासी का संस्कार।

नागी जलाशय

नागी जलाशय में पक्षियों का कलरव  गुंजित हैं, चारो दिशा में, इनके स्वर मधुर और नीरव। नभचर है वो, सुंदर है वो इनके संगीत में छुपा है, जीवन का सार। कितने दिव्य गुण समाहित है इस पंखधारी प्राण में। अमृत है, जीवनदायनी है सुमधुर है, इनके चहक रवानी है। अपनी विद्यमानता से सबको पुलकित कर नागी जलाशय को सुशोभित करते। वह दृश्य कितना मनोरम लगता, जब उजले व्योम से कोई खग शने-शने उतरता जलाशय पर। वह निश्चल-निर्भय होकर तैरता अविराम  असंख्य पंखधारी बन आते यहां मेहमान। ओ मनुज कभी तो आओ, जीवन के झंझावात को छोड़कर। आओ बैठो कुछ पल, इस जलाशय के तट पर। देखो कैसे शांत जल में खग खिलते कमल की तरह दिखते मनमोहक। उनके कलरव से गूंजता है वातावरण जैसे कोई मधुर संगीत हो रहा है प्रसारण। कभी उड़ते हैं, कभी तैरते हैं कभी मित्रों संग अटखेलियां करते हैं कभी शांत बैठकर आकाश निहारते। इनकी चंचलता देखकर चित्त होता है प्रसन्न जैसे कोई स्वर्ग का दृश्य हो रहा प्रस्फुटन। नागी जलाशय में पक्षियों का कलरव, है जीवन का एक अनमोल अनुभव। इससे मिलता है मन को शांति और सुकून, जैसे कोई दिव्य आशीर्वाद  हो रहा प्रचुर।** ✍️Kartik Kusu...

वन अधिकारी की विदाई

वनों की रक्षा के लिए, आपने अपना जीवन समर्पित किया, प्रकृति के संरक्षण के लिए, आपने सर्वस्व तर्पण किया आपके नेतृत्व में, वनों की स्थिति में सुधार हुआ, वनों के संरक्षण के प्रति, आपका जूनून सदैव रहा। आपकी विदाई से, वन यथावत रहेगी, या नहीं ? मुझे पता नहीं, लेकिन आपकी यादें हमेशा, हमारे दिलों में रहेंगी। आपके उज्जवल भविष्य के लिए, शुभकामनाएं देते हैं, साथ उम्मीद करते हैं, आप नई कर्मभूमि पर भी, सफलता के मंजिलो को छुएंगे। आप अपने कर्मों के प्रति  कभी विमुख नहीं होंगे । मैं तो सिर्फ याद करूंगा आपके द्वारा दिए गए गुलमोहर अब बड़े हुए, लगते कितने मनोहर उनकी हरितमा लगे जैसे मधुवन आपने ही तो सजाया यह उपवन जब-जब  लाल फूलों को देखूंगा आपकी यादों में खो जाऊंगा। आपकी यादों की अनन्त गोता में मैं याद करूंगा उन वनवासियों के बीच जो संगोष्ठी की मैं याद करूंगा वन अग्नि रोकने की जो प्रयत्न की मैं याद करूंगा यह भी, उस सघन वन की तिमिर बेला में कैसे आपने वन अग्नि पर काबू पाई। मैं याद करूंगा नागि-नकटी में आपके साथ बिताए पल मैं याद करूंगा यूरेशिया, मध्य एशिया, आर्कटिक सर्कल, रूस और उत्तरी चीन से आए पक्षिय...

दूर क्षितिज

दूर क्षितिज पूरब से लालिमा छाई । प्रकट हुए सूर्यदेव जगत में चर-अचर और खग गाई। लाल किरण की प्रस्फुटन से वनस्पतियों ने ली अंगड़ाई। गुलजार हुआ जग सारा लागे यह जहां न्यारा उषा की वेला में  निकला जब, घर से अकेला पक्षियों का कलरव  था कितना अलबेला  मंद -मंद समीर के झोंके कितना सुंदर वो भोर के मौके हर रोज बरबस ही, खिंचा चला जाता हूं। ताल -से -ताल  मिलाता हूं उस चिरैया के गायन से कितना मनहर लागे फुदक -फुदक कर, जब अपनी गान सुनाएं साथ कूके वन मे कोयलया सुन के सुहावन लागे ओकर बोलिया कागा अटारी पर चढ़ बोले पाहुन आने का संदेश सुनावे प्रकृति के मनोरम दृश्य देखकर मन मंत्र -मुग्ध हो जाए। ✍️ Kartik Kusum Yadav 

जनता के सेवक

जनता के सेवक होकर मारते हो उन्हीं को ठोकर उनके ही कर से, मिलते है तुम्हें पगार और तुम करते,  उन्हीं पर अत्याचार उनके ही महसूल से, चलते हैं तेरे घरबार उनके ही कर से तुम स्वप्न देखते हो दिवा में अपने बच्चों को  पढ़ाएंगे, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका में, उनके ही कर से , बच्चो को  पास कराने की रखते हो इच्छा संघ लोक सेवा आयोग जैसी परीक्षा । उनके ही कर से, तेरे चरणपादुका की चमक नहीं जाती उनके ही कर से तेरी कार है ,यह चमचमाती उनके ही कर से तेरे कार के पहिए दौड़ते हैं। उनके ही कर से कार में म्यूजिक सिस्टम बजते हैं। उनके ही कर से कार में जगजीत सिंह की ग़ज़ल सुहानी पर  कर देने वाले  जनता को कर देते हो मानहानि  । तनिक भी लाज नहीं तुझे  पहन यह वर्दी खाकी, जो ऐसे काज किए। अपने उर पर हाथ रख पूछ जरा । सिर्फ तू ही है सुपुत्र  इस धरा  बाकी सब गुंडे-मवाली,आतंकी क्या कभी अपने तनय को , आतंकी कह  संबोधन करेंगे जरा ? उन्हें भी, एक सेकंड में आतंकी बना देंगे, ऐसा कहने का जद्दोजेहद करेंगे जरा। नहीं कहेंगे, नहीं करेंगे क्योंकि , जगत में एक तेरा ही तो शिष्ट सुपुत...

भारत मां के लाल

भारत मां के लाल हैं हम दुश्मन के लिए काल है हम अनायास कोई छेड़े मुझे उसके लिए भौकाल है हम मेरे वैभव और प्रगति देख दुनिया मुझे सलाम करें यह माटी हिंद सनातन की   बच्चा-बच्चा श्री राम कहे संत ऋषि - मुनि की परंपरा पथ - प्रदर्शक  रहे सदा राम-कृष्ण की धुनी लगे  गंगा में हर -हर गंगेय। महाकाल भस्म लगाए बैठे कैलाश शीश झुकाएं यहां कान्हा की टोली रासलीला करें राधा  होली खेले यहां भारत जीवन दर्शन परंपरा करे मानवता को तर्पण सदा विश्व बंधुता की बात करें कल्याण भाव रख आगे बढ़े कोई आंख दिखाए गर घोप दू सीने में खंजर बन जाऊं  मैं काल क्योंकि, भारत मां के लाल हैं हम दुश्मन के लिए काल है हम। ✍️ kartik kusum yadav 

गरीबी अभिशाप नहीं

कैसे तुम्हे समझाऊं मां क्यों रोती हो दिन -रात गरीब होना अभिशाप नहीं उसपर विलाप कितना सही माना दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं  मुझे मैं भूखे सो जाऊंगा किस बात की डर है तुझे एक दिन तेरा यह छौना बड़ा होगा उस दिन तेरा  जीवन सुनहरा होगा मैं जाऊंगा परदेस कमाने पहली कमाई से मां तेरे चरणों का पूजन होगा उस पर शेष बचा तो रेशमी साड़ी, पैरों में चप्पल होगा फिर सोचूंगा। एक छोटा सा हो आशियाना भोजन से थाल सजा हो जायकेदार हो खाना बंशी का चैन बजे न दे कोई ताना तूने मुझे जीवन दिया मां दुनिया में लाया तुने ही मैय्या खुद सोई फर्श पर मेरे लिए मखमली शैय्या अपने को खपा-तपा कर मां मेरे लिए, खुद को झोंक दिया  मेरे जीवन का नौका  मां तू ही है खेवैया तेरे स्तन का क्षीर पीकर मां सुंदर, बलिष्ठ, बलवान बना तेरी राजी खुशी से ही सुंदर -सुशील बहुरिया लाऊंगा  मैं रहूंगा परदेस कमाने  बहूरिया को अच्छे ज्ञान देना तेरे कामों में हाथ बटाएगी  एक दिन बनेगी तू दादी मां  तोतली आवाज में   दादी मां  कह दौड़ेगा मेरा छौना  प्यार से आलिंगन कर, माथे को चूमना  लाकर  उसे देना...

रूठे बदरा

सावन में रूठे बदरा उड़ रहे हैं धूल प्रभु तेरी कैसी लीला बगिया के मुरझाए फूल रंग -बिरंगी तितलियां भी  मंडराना गई भूल। सूखी तरुवर, सूखी लता सूखी यह धरती माता धरती की हरीतिमा बिन वर्षा बिन पानी कहां छाती पीट रहा कृषक अब अन्न उगाए कहां  यह मनुज का पाप कृत्य या आपदा यह प्रकृतिक समझ नहीं आ रहा बतला दो कोई जरा पथिक क्यों सावन में रूठे बदरा क्यों उड़ रहे हैं धूल ? ✍️ kartik Kusum Yadav 

चिड़ियां और मजदूर

चिड़िया गा रही है खेतों की मेड़ पर गीत वह गा रही मजदूरों पर ए मजदूर फसल काटने वाले व्यथा मेरी जरा तू सुनना सारा फसल तू काटना पर उनके बाली न चुनना शेष बचेंगे वह मेरे लिए अन्न सारा फसल ले जाने पर मैं उनका स्वाद चखऊंगा चोच में दबा ले घोसले में अगर तू उसे भी ले जाएंगे अन्न तलाश में भटक मर जाएंगे मेरे ऊपर यही उपकार करना सारा फसल तू काटना पर उनके बाली ना चुनना सुन मजदूर उनकी गीत उनके मन में भी आई संगीत एक छोटी चिड़िया तू भी सुनना व्यथा मेरी भी मैं हूं मालिक की दासा मैं भी रहता हूं हरदम तुम्हारी तरह भूखा प्यासा मैं इन्हें ले जाकर खलिहान के ऊपर लगाऊंगा ढेर बदले में मिलेंगे अन्न मुझे सैर दो सैर आना तू खलियानों पर खाना बैठ लगे ढेरों पर चिड़िया ने फिर गाकर बोली ना ना मैं ना आऊंगी तेरी बातों में मैं ना भर्मआऊंगी सुना है तेरा मालिक है कंजूस दाने की लालच देकर मुझे पकड़ लेगा वह कंजूस हम पिंजर बंद हो जाएंगे सारा चैन मुझसे छीन जाएगा मेरी दुनिया सिमट कर उस पिंजरे में बंद हो जाएंगे फिर इस नील गगन में  उड़ने की परिकल्पना सिर्फ स्वप्न होगी उस झर- झर कर झरने वाली निर्झरिणी का नीर चखना स्वप्न होगी नहीं- ...

पत्रकारिता

एक समय था   पत्रकारिता का। पत्रकार की कलम में , ताकत हुआ करता था  कलम से लिखा गया एक -एक शब्द राजनेताओं -अधिकारियों   के  कुर्सी हिला देता था। एक -एक शब्द तीर के समान चुभती लाख खरीददार होने के बावजूद उस समय की पत्रकारिता बीके  नहीं बिकती  जब देश गुलामी  के जंजीरों में जकड़ा था अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने में  पत्रकारिता का अहम  भूमिका था आज डिजिटल युग के तथाकथित पत्रकार जिसकी लगी है, लंबी कतार  दूर-दूर तक न है, पत्रकारिता से नाता पत्रकारिता की आड़ में  सिर्फ धौंस जमाता  पत्रकार बने घूमे फिरते हैं गांव -गली मोहल्ले  सच कहे तो इनको पत्रकारिता का अर्थ  नहीं पता जिस कारण ही   दिन -प्रतिदिन पत्रकारिता की छवि   धूमिल हुई   लोगो का भरोसा पत्रकारिता   पर कम हुई। आए दिन समाचार पत्रों में खबरें छपती है। अमुक पत्रकार , किसी के साथ ब्लैकमेल किया ऐसी सुर्खियां लगती है। अपनी धाक जमाने के लिए गाड़ी पर प्रेस लिखाए  गाड़ी पर नंबर की जरूरत नहीं हेलमेट न पहने  कोई बात नहीं  अगर कोई पुलिस रोके ...