उमर के आखिरी पड़ाव में
सब कुछ नष्ट कर जाएगा।
सारे रिश्ते, नाते, प्यार
समय की आग में चट कर जाएगा।
कौन संजोएगा?
कौन ढोएगा?
यहां तो हरेक हृदय में
विष भरा पड़ा है।
जिन्हें करनी थी
समतामूलक समाज का निर्माण,
जिन्हें बनानी थी
एक नई पहचान।
कुछ कर गुजरने का जिगरा रखना था,
निजी स्वार्थ से ऊपर उठना था।
सेवा के पथ पर चलकर
प्रेम का दीप जलाना था।
दो टूटे परिवारों का सेतु बनकर
कंठहार में स्नेह पिरोना था।
पर उनकी मति मारी गई,
वह तो हारी गई।
अपने को मार कर बैठ गया,
खुद से हार कर वह बैठ गया।
उन्हें किसी दूसरे की
अच्छाई भाती नहीं,
उन्हें अच्छाई आती नहीं।
ईर्ष्या, लोभ, की वेदना में डूबा —
यह कैसी है बुढ़ापा!
जिन्हें चलना था भजन-मार्ग पर,
जिन्हें पढ़नी थी जीवन-दर्शन की किताबें।
गेरुए वस्त्र धारण कर
ललाट पर लगाना था चंदन तिलक।
“ॐ नमः शिवाय” का जाप कर
मोक्ष की राह पर अग्रसर होना था।
पर वह जीवन के झंझावात में फँस गया,
वासनाओं की भीड़ में उलझ गया।
न मोह छूटा, न माया छूटी,
वह सड़कों पर बहता गंगाजल बन गया।
कोई उन्हें निकाले, कोई उन्हें बचाए,
मानवता की नाव फिर से खे जाए।
अब भी समय है —
संघर्ष से ऊपर उठने का,
हृदय को निर्मल करने का,
प्रेम और सेवा में रमने का।
जहाँ बुढ़ापा बने वटवृक्ष —
छाया दे, साया दे,
और भविष्य को दिशा दे।
✍️ Kartik Kusum Yadav
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