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किसने छीनी कलम?

जिन हाथों में कलम थीं, जो दिन-रात कागज़ों से संघर्षरत थे, सुनहरे अक्षरों में सपनों को बुनते, हर दिन जीवन के नए अध्याय गढ़ते। दिल में बस एक चाह — देशप्रेम और सेवा का भाव। निर्मल हृदय, शांत चित्त, न धन की भूख, न लोभ की चाह। लेकिन... अगर उन्हीं हाथों में बंदूकें आ जाएं, और वे चलाना भी सीख जाएं — तो पहले उन्हें पकड़ो, जिन्होंने उन हाथों में बंदूकें थमाई। साथ ही यह भी जानो — कलम पकड़ने वाले हाथों में बंदूकें क्यों आईं? उन्हें ढूंढो, उन्हें कोई पकड़ो! ✍️ कार्तिक कुसुम यादव

यह कैसी है बुढ़ापा?

उमर के आखिरी पड़ाव में सब कुछ नष्ट कर जाएगा। सारे रिश्ते, नाते, प्यार समय की आग में चट कर जाएगा। कौन संजोएगा? कौन ढोएगा? यहां तो हरेक हृदय में विष भरा पड़ा है। जिन्हें करनी थी समतामूलक समाज का निर्माण, जिन्हें बनानी थी एक नई पहचान। कुछ कर गुजरने का जिगरा रखना था, निजी स्वार्थ से ऊपर उठना था। सेवा के पथ पर चलकर प्रेम का दीप जलाना था। दो टूटे परिवारों का सेतु बनकर कंठहार में स्नेह पिरोना था। पर उनकी मति मारी गई, वह तो हारी गई। अपने को मार कर बैठ गया, खुद से हार कर वह बैठ गया। उन्हें किसी दूसरे की अच्छाई भाती नहीं, उन्हें अच्छाई आती नहीं। ईर्ष्या, लोभ, की वेदना में डूबा — यह कैसी है बुढ़ापा! जिन्हें चलना था भजन-मार्ग पर, जिन्हें पढ़नी थी जीवन-दर्शन की किताबें। गेरुए वस्त्र धारण कर ललाट पर लगाना था चंदन तिलक। “ॐ नमः शिवाय” का जाप कर मोक्ष की राह पर अग्रसर होना था। पर वह जीवन के झंझावात में फँस गया, वासनाओं की भीड़ में उलझ गया। न मोह छूटा, न माया छूटी, वह सड़कों पर बहता गंगाजल बन गया। कोई उन्हें निकाले, कोई उन्हें बचाए, मानवता की नाव फिर से खे जाए। अब भी समय है — संघर्ष से ऊपर उठने का, हृदय...

"टूटल सपना, भींजल खेत"

सोनवा नियन गेहुआं,   सोनवा नियन खेत।   देखी के किसान के   भर गेल हले पेट। नरम-नरम हथिया से सहलउलकी,   प्यार से गेहुआं के बाली।   सुघ्घर गेहुआं देख के,   हम सपना लगलीं पाली। सोचलीं–   ए साल गेहुआं बेच के   छोटका के सहर पढ़ई भेजब।   स्कूल में नाम लिखइब।   ओही पइसा से   छोटका ला जूता-चप्पल किनब।   पढ़ाई करईब, बड़ आदमी बनइब। बाकी विधाता ऐसन बरखा कर देलक   कि जीते जी हम मर गइली।    सब कुछ बह गेल।   सपना चकनाचूर हो गेल।   खेत के सोनवा   पल भर में मिट्टी भेय गेल। किसान छाती पीटऽ हथ   लाडो बेटी के गोदी में बइठा के।   बोलऽ हथ—   लाडो बेटिया, तोहसे भी वादा कइने रहलीं।   पाँव में पायल पहिरइब।   देहिया ला फ्रॉक और अंगिया किनब। माफ कर देब लाडो बेटिया—   अपन तो एहे बाप हई।   जे कुछ ना कर सकल तोहार खातिर। --- लेखक – कार्तिक कुसुम यादव  भाषा – मगही   व...

कविता, तू कायर है...

तू कायर है तूने अपना परिचय दिया, बदले की भावना में बहकर, दूसरो का सहारा लिया। तुझे लगा कि तू रणनीतिकार है, नहीं रे... तू बेकार है। तू बेकार इतना कि, तुझसे तुलना पंक के कीड़े से करना व्यर्थ। तुझझे नहीं हो पाएगा, तेरे कृत का है यही अर्थ। तुझे क्या लगा? मैं इस तुच्छ चीजों से विचलित हो जाऊंगा, बदले की भावना में बहकर, मैं तुझसे लड़ूंगा। नहीं रे... जो स्वीकार कर लिया हार का, जिसके सामने डाल दिया तू खड़ग, उनके साथ ऐसे कृत्य सुशोभित नहीं। अगर अभी भी है भुजाओं में बल, और रखते हो युद्ध कौशल, तो आ... तुझे ललकार रहा हूं, आमने-सामने की लड़ाई लड़। अगर मां के स्तन का क्षीर पिया हो, तो कर युद्ध निडर। मुझे पता है रे... तेरे रगों में कायरों का खून है। भुजाएं शक्तिहीन हैं। रण की तलवारों की टकराहट सुन, तेरे हृदय का स्पंदन होता शून्य। तू रण के लायक नहीं। तू कायर है रे... तू कायर सही। ✍️ Kartik Kusum Yadav

नदी किनारे देवालय

नदी किनारे देवालय  ऊपर ओढ़े चादर किसलय। फूल-हरि पत्तियां अर्पित  सलिल पांव पखारे। टन-टन बजती घंटियां साधु संत करते आरतियां  वातावरण सुंदर सुहावन लगे मंदिर में जब घंटी बजे गीत सुनाती जल धारा कल-कल कर बहती गाती शांत, सौम्य, मनोरम दृश्य देवालय खींच लाती। ✍️ Kartik Kusum Yadav

जिनगी के असल रंग

युवा लोगन सभे,   इंस्टा पर झूमे,   गावे ला तराना,   देखअ ई कैसन जमाना।   रात-दिन मोबाइल में भुलाइल,   खेलअ-कूदअ त गइल भूल।   घर के कौना में सिमटल जिनिगी,   रंग-बिरंग सपना सभ मिटल।   माटी में खेलल भुलाईल,   जिनिगी जिए के मने भुलाइल।   कैसे समझाईं, ओहके कैसे मनाईं?   ए सुगना, ए बबुआ!   तनी घर से बाहर निकलअ,   खेलअ, कूदअ, दौड़अ धूपअ,   ई खुलल फिजा में विचरअ,   जीवन के असली रंग निहारअ।   खेतवा में सरसों के पियरी,   आपन नयन से तनि देखअ,   अमवा के डाली पर कोयली कूके,   ओकर मधुर तान सुनअ।   फुलवा पर देखअ   कैसे रंग-बिरंग तितली मडरातअ,   सुबह के ललकी किरिनिया,   घासवा पर शबनम के बूंद नया,   देखअ कैसे चमकअ त।   बांस के झुरमुट में   चहके ल चिरइया,   उजर आसमान में उजर बगुला,   देखअ कैसे उड़ रहल ह।   बगिया में दे...

प्रेम और परिवर्तन का संदेश

शक न करअ,   जिद पर न अड़अ,   ई बुरी वला ह।   सपना जे तोहार बा,   मन में जे इरादा बा,   उहो निक न ह।   मन में जे ईर्ष्या बा,   जीवन में ऊहापोह बा,   ओकर कारण तू ही ह।   ई काल चक्र ह जीवन के,   ई नित्य नवीन परिवर्तनशील ह।   तू कहा फसल बाड़नऽ   ई भौतिक वस्तु के मोह-माया में?   ई नश्वर, क्षणभंगुर ह।   एकरा जानअऽ, एकरा मानअऽ।   जिह्वा देलहन भोले बाबा,   त तनी शुभ-शुभ बोलअऽ।   बतइयां करे से पहिले तनीक,   हृदय के तराजू पर तोलअऽ।   अपन अहंकार के त्यागअ$,   प्रेम-दुलार के रंग में रंग जा।   प्रेम में ऐसे डूबअऽ,   जैसे हर जन आपन लागे।   ✍️ Kartik Kusum Yadav