साहब सुन लीजिए
एक दुखिया की बात
दीन-हीन गरीब हूं।
न ही मेरा कोई रकीब है
गांव में रहती हूं
खेत-खलियानो में मजदूरी कर
जीवन-यापन करती हूं।
रहने की है।
टूटी झोपड़ी-मड़ाई
सीधी-साधी हूं।
न करती हूं,किसी से लड़ाई
इत्ती सी है मेरी समस्या
आस लगाए बैठी हूं कब से
कर दीजिए न समाधान
घने जंगलों बीच
वो गांव मेरा
जहां मैं डाले हूं डेरा
ऊंचा है वहां मेरा मचान
कंदमूल,फल तोड़ अरण्य का
करती हूं, उसका रसपान
सुन पक्षियों का गुंजन
कर लेती हूं,खुद का मनोरंजन
परंतु
पेयजल के लिए
हमेशा तरसती हूं
बर्तन लेकर,
कोसों दूर भटकती हूं
इस उमस भरी गर्मी में
बूंद-बूंद नीर के लिए
लोग आपस में भी लड़ पड़ते है।
ऊपर से
वो दुर्गम रास्ते वो कांटे
थक जाती हूं आते-जाते
तब जाकर प्यास बुझती है।
दिवस के आधे समय
यूं ही कट जाते आते-जाते
दया करो साहब दया करो
इस दुखिया पर दया करो
पेयजल की
ग्रामीणों के लिए कुछ उपाय करो।
✍️ Kartik kusum yadav
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