निर्मल धारा थी नदियाँ की निर्मल था उसका पानी कण-कण में व्याप्त थी स्वच्छता शीतल था उसका पानी कल-कल कर वह बहती थी नीर सरिता की थी मीठी अपने अमृत जलधारा से प्यास बुझाती थी सबकी नीर चख तृप्त हो जाते थे दीर्घकाय हाथी से लेकर चींटी उपहार स्वरूप मिला था देन थी यह ईश्वरीय प्रकृति मनुष्य की धनलोलुपता ने रेत का व्यवसाय किया उत्खनन यंत्र लगाकर निर्झरिणी के संग अन्याय किया यत्र-तत्र कर खुदाई नदी की अस्तित्व मिटाई संविदाकार ने भी, की खूब कमाई। दुर्दशा हो गई सरिता की इतनी तप रही जेठ दुपहरी अमृत जलधारा देने वाली। तरस रही बूंद भर वारि सदियों से ढोती आई थी नर का वह पाप सकल मरणासन्न अवस्था में आज कोई नहीं जरा भी विकल उत्स थी यह जल की, पर आज उत्स है आर्थिक दिवस हो या वो तम सघन देखो थम नहीं रहा उत्खनन पर्यावरणविद कुछ करो पहल पकड़ हाथ बैनर निकल आह्वान कर आवाम से संदेश हो यह प्रबल -प्रखर यात्रा कर हर नुक्कड़ हर कोना हर घर से निकलेगा अब सुंदरलाल बहुगुणा। ✍️ Kartik Kusum Yadav