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मुंशी प्रेमचंद के शब्द

अतीत चाहे दु:खद ही क्यों न हो, उसकी स्मृतियाँ मधुर होती हैं। स्त्री और पुरुष में मैं वही प्रेम चाहता हूँ, जो दो स्वाधीन व्यक्तियों में होता है। वह प्रेम नहीं, जिसका आधार पराधीनता है।  आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक है।  वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राण-पोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम वसंत समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू।  प्रेम जितना ही सच्चा, जितना ही हार्दिक होता है, उतना ही कोमल होता है। वह विपत्ति के सागर में उन्मत्त ग़ोते खा सकता है, पर अवहेलना की एक चोट भी सहन नहीं कर सकता।  दौलत से आदमी को जो इज़्ज़त मिलती है वह उसकी नहीं, उसकी दौलत की इज़्ज़त होती है।  मायूसी मुम्किन को भी ना-मुम्किन बना देती है।  सोने और खाने का नाम ज़िंदगी नहीं है। आगे बढ़ते रहने की लगन का नाम ज़िंदगी है।  काम करके कुछ उपार्जन करना शर्म की बात नहीं, दूसरों का मुँह ताकना शर्म की बात है।  यह ज़माना ख़ुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेट भी न पूछेगा।